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स॒म्राजा॒ या घृ॒तयो॑नी मि॒त्रश्चो॒भा वरु॑णश्च। दे॒वा दे॒वेषु॑ प्रश॒स्ता ॥२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

samrājā yā ghṛtayonī mitraś cobhā varuṇaś ca | devā deveṣu praśastā ||

पद पाठ

स॒म्ऽराजा॑। या। घृ॒॒तयो॑नी॒ इति॑ घृ॒॒तऽयो॑नी। मि॒त्रः। च॒। उ॒भा। वरु॑णः। च॒। दे॒वा। दे॒वेषु॑। प्र॒ऽश॒स्ता ॥२॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:68» मन्त्र:2 | अष्टक:4» अध्याय:4» वर्ग:6» मन्त्र:2 | मण्डल:5» अनुवाक:5» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यो को यहाँ कैसे होना चाहिए, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (या) जो (घृतयोनी) घृतयोनी अर्थात् जल कारण जिनका वे (देवेषु) विद्वानों में (प्रशस्ता) श्रेष्ठ (सम्राजा) उत्तम प्रकार शोभित होनेवाले (देवा) दो विद्वान् अर्थात् (मित्रः) मित्र (च) और (वरुणः) स्वीकार करने योग्य (च) भी (उभा) दोनों प्रवृत्त होते हैं, उन दोनों को आप लोग बहुत आदर करिये ॥२॥
भावार्थभाषाः - जो विद्वानों में विद्वान् राजपुरुष चक्रवर्त्तिराज्य को सिद्ध कर सकते हैं, वे ही यशस्वी होते हैं ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यैरिह कथं भवितव्यमित्याह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! या घृतयोनी देवेषु प्रशस्ता सम्राजा देवा मित्रश्च वरुणश्चोभा प्रवर्त्तेते तौ यूयं बहु मन्यध्वम् ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सम्राजा) यौ सम्यग्राजेते तौ (या) यौ (घृतयोनी) घृतमुदकं कारणं ययोस्तौ (मित्रः) सखा (च) (उभा) उभौ (वरुणः) वरणीयः (च) (देवा) देवौ (देवेषु) विद्वत्सु (प्रशस्ता) श्रेष्ठौ ॥२॥
भावार्थभाषाः - ये विद्वत्सु विद्वांसो राजपुरुषाश्चक्रवर्त्तिराज्यं साद्धुं शक्नुवन्ति त एव कीर्त्तिमन्तो जायन्ते ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे विद्वानात विद्वान राजपुरुष चक्रवर्ती राज्य करू शकतात तेच यशस्वी होतात. ॥ २ ॥